मत कर अत्याचार रे बन्दों ,मत कर यूँ अत्याचार ....
लूटा मुगलों ने ,तो सम्हल गयी ...
मैंने सोच लिया , वो विदेशी थे ....
अंग्रेजो ने किया ,तो दहल गयी ...
फिर तसल्ली हुई ,वो परदेशी थे ...
तुम सब तो , मेरे अपने हो ....
मैं माँ हूँ तुम्हारी ,तुम स्वदेशी हो ....
फिर मेरे खुद के जायो में ,ऐसे वैमनस्य और अहंकार क्यूँ ....
अपनों के बीच खिंची है , नफरत की ऐसी दीवार क्यों ...
मत कर मुझ पर दुराचार रे बन्दों ,मत कर यूँ दुराचार ...
जब जकड गयी ,मैं परतंत्रता की सलाखों में ...
और लहू के आंसू भी ,भरने लगे मेरी आँखों में ...
तो मेरे अमर शहीदों ने , मुझे मान दिया ...
उस तडपन से निकाल ,मुझे सम्मान दिया .....
अब फिर से ,मेरे माथे की चुनरिया सरकी है ...
और आपस में , प्रेम की दीवार भी कुछ दरकी है ....
यूँ अपने स्वार्थ में लिप्त हुआ , मेरा प्यारा सा संसार क्यूँ ...
ऐसे कर्णधारो के हाथो में , मेरी अस्मत का दारोमदार क्यूँ ....
मत कर इन बुराइयों को अंगीकार रे बन्दों,मत कर यूँ अंगीकार ....
कही सोने के लिए फुटपाथ पर ,अख़बार की गद्दी लगती है ...
तो कही मलमल के गद्दों पर ,कुत्तो की भी सेज सजती है ...
कोई फ्रोजेन खाने के साथ भी, भूख लगने की गोली खाता है ....
तो कही भूख से बिलखते बच्चो को ,बासी रोटी की भी नहीं आशा है ...
ऐसे में मेरी बदहाली के बाबजूद, दुनिया में खुशहाली का आगाज क्यूँ,
भूख हड़ताल करते लोगो के ऊपर भी, पिघलती नहीं है सरकार क्यों,
मेरी नैया है मंझधार रे बन्दों,अब सुनले मेरी पुकार ...
मेरी विनती बारम्बार रे बन्दों ,मत कर अत्याचार .........
1 comment:
A beautifully written --a nice collection of superfine poetic creations.
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