Tuesday 17 September 2013

खुद्दारी...

साहिल की बात वो करें जो डरते हैं डूब जाने से, हम तो गम के दौर में भी आशाओं की चप्पुए ही चलाते हैं... 

कागजी-पन्नो पर इबादत लिखने का नहीं है शौक हमें ,हम तो हाथो की लकीरों को भी खुद की खुदी से ही मिटाते हैं ...

कल क्या होगा इस सोच में कौन ये वक्त खराब करे,हम तो हर पल ,आज की खुशियों का ही अंदाजे बयान कर जाते हैं...

ढूंढते रहें लोग सुख को फूलो और गुले-मौसम में,हम तो सपनो में भी वासंती गुलशन का आशियाँ ही बनाते हैं ...

चांदनी रात की टकटकी लगाने वालो में अपना नाम शुमार नहीं,हम तो अंतर-खुशियों से भी हर आलम को पूनम ही बनाते हैं... 

वो कोई और होंगे जो तमन्ना पूरी करने को खुद को मिटा जाते हैं, हम तमन्ना को मिटाकर भी अपनी खुद्दारी बचाते हैं...
                                                                                                                  (17.09.13)
                                                                                                                   

क्या फायदा...

जब जख्म पिघल आंसू बन गए, दर्द पर मरहम लगाने से क्या फायदा...
जब सब्र का पैमाना छलक सा गया,उस पे शब्दों का बाँध बनाने से क्या फायदा...

हम बच्चो के जेहन में जहर घोल गए,मिथ्या बातो से उन्हें बहलाने लगे,
जब वो बड़े हुए ,झूठी विरासत मिली, सच का महल बनाने से क्या फायदा..

आलम ऐसा भी था,हमारा सानी ना था,देश -विदेशो में भी हमसे कोई ज्ञानी ना था ...
हमने पश्चिम सभ्यता का ज्ञान लिया,भोगवादी संस्कृति को महान किया...
जब साँझ वेला ढली,वृद्धाश्रम घर बन गया , नयी पीढ़ी को कोसने से क्या फायदा...

जहर डूबा कर बातो का तीर चला दिया, तीखी बातो से सीना छलनी कर दिया...
जब खून खून में फरक का चलन चल गया,स्वस्थ समाज का आदर्श बघारने से क्या फायदा ...

वन के फूलो से अपना याराना बढ़ के था,उनके आँचल में हर दिन संवर जाते थे,
हमने उनको भी जड़ से जुदा कर दिया,कंक्रीट जंगल हमें रास आने लगे,
जब जंगल भी पीछा छुड़ाने लगे,बेमौसम आग हमपे बरसाने लगे,घर में बागवान लगाने से क्या फायदा...

तमन्ना थी ना खुदा से कोई फरियाद हो ,अंत समय में ना शिकवा शिकायत भी हो...
ताउम्र ,तन को हम बस सजाते रहे, स्वार्थ माया में खुद को भुलाते रहे..
जब उम्र बीत गयी,आतम रीता रहा ,तीरथ में धुनी रमाने से क्या फायदा ....
                                                                               
  (25.08.13)

मोती की लड़ियाँ ...


आज जी भर के अठखेलियाँ कर लेने दे मुझे इन उफनती लहरों में,ऐ मुकद्दर मेरे....

कल को ये फक्र तो होगा , हमने तुफानो में भी अपने लिए मोती की लड़ियाँ  ही सजाई है....
                                                                                                             (16.09.13)

Sunday 28 July 2013

जज्बा

जिहादे-पत्थर भी एक दिन पिघल जायेंगे,प्रेम की नमी का समंदर बहा कर तो देख...

हम आंसू नहीं जो ढलक जायेंगे ,अपनी आँखों में इक बार चढ़ाकर तो देख...


लकीरे- मुकद्दर भी सबकी बदल जाती है, अपनी हाथो की ताकत आजमाकर तो देख ...


सलमा -सितारों की चुनरी हट भी जाए तो क्या,हया के घूँघट से नजरे झुकाकर तो देख...


गम के बादल घनेरे हैं,छट जायेंगे,ज़रा उमंगो की माचिस सुलगा कर तो देख ...


रब को क्यूँ ढूंढे प्यारे तू पीरे मजार,मन के परदे से दिल में समाकर तो देख...


मंदिरों में दान देने का क्या फायदा ,घर के रिश्तो में अपनी गरीबी तो देख....


तमन्ना हकीकत में भी अपनी बन जाती है ,इसे पाने का जज्बा सजाकर तो देख ....
 
                                      
                                                                          (26.07.13)
                                                                
         Photo: नजर  का  फेर  है  कि  हम  ज़माने  का  रुख  भी  बदल  डालेंगे ,यहाँ  तो कब हम  बदलते  है , इसकी आहट ही  नहीं  मिलती .....
घर  में  बगिया लगाने की  वो  बात  करते  रह  गए , यहाँ  तो  परिंदों  को  भी  ,आशियाना बनाने की  जगह  ही  नहीं  मिलती..
दोस्त  वो होते हैं  जो  हमारे  लिए  खुद  को  भी  मिटा  देते हैं ,यहाँ   हमारे  मिटने  पर  भी , उनकी  आँखों  में  नमी ही  नहीं  दिखती..
 उन्हें  फक्र  है  कि  हम  ज़माने  के उसूलो  को  निभाते  हैं , यहाँ उसूल कब कब्रे-ख़ाक हुए , किसी  को इसकी भनक भी नहीं लगती..
 रोज  भीड़  में  हम  लोगो  की  एक  गिनती  लगा  देते  है , यहाँ  इन  लोगो  में  एक  इंसान  की  झलक ही नहीं दिखती..
यहाँ  हम  भूख  मिटाने  के लिए योजनाये चलाते रहते है,             यहाँ  तो  खाने  से  भी  मौत  से  उन्हें  निजात  नहीं  मिलती..
 हम  रोज ढूंढते  रहते है  उन्हें  सपनो  में  भी दर-बदर ,यहाँ  तो  सामने  देख  कर  भी  उनकी नजरे - इनायत  ही नहीं मिलती.....
तमन्ना थी  कि  हम ख्वाबो  का  इक  शहर  बसाते  लेते ,पर  तमन्ना  बनाये  किसे, सबों  से  अपनी  तबियत  भी तो  नहीं मिलती.....                                                          

एक छोटी सी आस


                          

नजर का फेर है कि हम ज़माने का रुख भी बदल डालेंगे ,
यहाँ तो हम कब बदलते है , इसकी आहट ही नहीं मिलती .....

घर में बगिया लगाने की वो बात करते रह गए ,
 यहाँ तो परिंदों को भी ,आशियाना बनाने की जगह ही नहीं मिलती..

दोस्त वो होते हैं जो हमारे लिए खुद को भी मिटा देते हैं ,
यहाँ हमारे मिटने पर भी , उनकी आँखों में नमी ही नहीं दिखती..

उन्हें फक्र है कि हम ज़माने के उसूलो को निभाते हैं , 
यहाँ उसूल कब कब्रे-ख़ाक हुए , किसी को इसकी भनक भी नहीं लगती..

रोज भीड़ में हम लोगो की एक गिनती लगा देते है , 
यहाँ इन लोगो में ,एक इंसान की झलक ही नहीं दिखती..

यहाँ हम भूख मिटाने के लिए योजनाये चलाते रहते है,
 यहाँ तो खाने से भी ,
उन्हें मौत से निजात नहीं मिलती..

हम रोज ढूंढते रहते है उन्हें सपनो में भी दर-बदर ,
यहाँ तो सामने देख कर भी ,उनकी नजरे - इनायत ही नहीं मिलती.....

तमन्ना थी कि हम ख्वाबो का इक शहर बसाते लेते ,
पर तमन्ना बनाये किसे, सबों से अपनी तबियत भी तो नहीं मिलती.....
                                                         
                                                                     -तमन्ना सिंह (28.07.13)