Sunday 28 July 2013

एक छोटी सी आस


                          

नजर का फेर है कि हम ज़माने का रुख भी बदल डालेंगे ,
यहाँ तो हम कब बदलते है , इसकी आहट ही नहीं मिलती .....

घर में बगिया लगाने की वो बात करते रह गए ,
 यहाँ तो परिंदों को भी ,आशियाना बनाने की जगह ही नहीं मिलती..

दोस्त वो होते हैं जो हमारे लिए खुद को भी मिटा देते हैं ,
यहाँ हमारे मिटने पर भी , उनकी आँखों में नमी ही नहीं दिखती..

उन्हें फक्र है कि हम ज़माने के उसूलो को निभाते हैं , 
यहाँ उसूल कब कब्रे-ख़ाक हुए , किसी को इसकी भनक भी नहीं लगती..

रोज भीड़ में हम लोगो की एक गिनती लगा देते है , 
यहाँ इन लोगो में ,एक इंसान की झलक ही नहीं दिखती..

यहाँ हम भूख मिटाने के लिए योजनाये चलाते रहते है,
 यहाँ तो खाने से भी ,
उन्हें मौत से निजात नहीं मिलती..

हम रोज ढूंढते रहते है उन्हें सपनो में भी दर-बदर ,
यहाँ तो सामने देख कर भी ,उनकी नजरे - इनायत ही नहीं मिलती.....

तमन्ना थी कि हम ख्वाबो का इक शहर बसाते लेते ,
पर तमन्ना बनाये किसे, सबों से अपनी तबियत भी तो नहीं मिलती.....
                                                         
                                                                     -तमन्ना सिंह (28.07.13)

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