Thursday 20 September 2012

क्या मैं अबला नारी हूँ !!!


क्या मैं अबला नारी हूँ....
दुःख हो या संताप हो जीवन में
कभी ना इनसे हारी हूँ ....
तन मन को गलाकर खुद से ,
बनी मैं पति पियारी हूँ ,
तो मत देखो मुझे नजर झुकाकर.
ना  मैं  कोई दीन दुखियारी हूँ ...

सतयुग में एक राजा हरिश्चंद्र  थे, सत्य पर जिहोने सब वार दिया...
विश्वामित्र की एक गूंज पर,राज सिंहासन अपना छोड़ दिया...
महलो की रानी थी शव्या ,  पली बढ़ी थी नाजो में...
सुख संसाधन , गहने जेवर पड़े थे जिनके चरणों में...

अपने पति के संग चलने को,इन सब से नाता तोड़ लिया...
नंगे पैर ,काँटों की शैया से ,अपना दामन जोड़ लिया...
ऐसे देवी शव्या की गाथा ,आज मैं तुमको सुनाती हूँ..
फिर मत कहना कभी प्रिय ,कि मैं  यूँ  दुखो से हारी हूँ ..

राजा बने कर्जदार जब, जा पहुंचे श्मशान के अन्दर...
सत्य की थी ये कठिन परीक्षा,बन गए वो चांडाल के नौकर...

पति की अनुगामिनी थी शव्या,जब पति साथ भी छोड़ गया..
एक पुत्र रोहित का आसरा था ,उसे भी सर्प ने काट लिया..
हाय रे विधि विधान की लीला,जा पहुंची वो उसी श्मशान में...
 जहां की रखवाली को बैठे थे  ,वहां राजा चादर तान के...

पुत्र विछोह की पीड़ा कैसी,पूछे कोई शव्या के अंतर्मन से...
उसपर  भी एक कफ़न ना जुटे,सोचे शव्या मन ही मन में...

तिसपर भी कुछ तरस ना खाए,  ऐसी थी राजा की स्वामिभक्ति..
शव्या  के पास बस तन की साड़ी थी,अब ना बची थी उसमे कोई शक्ति
राजा ने ऐलान कर डाला,  ना होगा कोई  अंतिम संस्कार ..
मालिक से धोखा ना होगा, ना है  मुझे अपने पुत्र से कोई सरोकार ..

हाहाकार कर उठी थी शव्या,दिल भी फट गया घाव से...
मुख से फिर भी एक उफ़ ना निकला,पति के प्यार के भाव से...
उसके चित की पीड़ा पहुंची ,सीधे इन्द्र दरवार में...
क्षमा- क्षमा कर बैठे देवता ,आकर  श्मशान के  द्वार में..

राजा ने तो यश को पाया ,उनके सत्य का भी  जयजयकार हुआ ...
पर रानी ने तो पति की खातिर ,कष्टों का गले में हार लिया ...

तुमने भी जरुर सुने होंगे,   ऐसे कितने  वेद पुराणों को ...
मरण शैया से लड़कर लायी .कितनी सावित्री कई सत्य्वानो को..
गर नारी से इज्ज़त बनती है तुम्हारी,तो दो फिर सुख सम्मान उसे...
जो देवी को पूजे मंदिर जाकर,क्यूँ करे घर में उसका अपमान वही ...

फिर कैसे कहते हो प्रियतम ,मैं एक अबला नारी हूँ...
तन मन तुमपर अर्पित करती हूँ,तुझे जिताने को खुद से हारी हूँ..
स्नेह की छाया में पलती हूँ,प्यार लुटाकर तो देखो हम पर ...
जला के प्रेम की पावन ज्योति ,दूंगी तन मन सब वार तुमपर ...

1 comment:

अरुण चन्द्र रॉय said...

मार्मिक कविता। आप बढ़िया लिखती हैं।